Ek Soch
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खाने की चाह में
रोता -बिलखता
एक नन्हा सा बच्चा आया मेरे पास
कहा बाबूजी एक रूपया दे दो!!
मैंने पूछा एक रूपया का क्या करोगे
तो अपनी तोतली सी आवाज में बोला
अपनी माँ और छोटी बहन का पेट भर लूंगा ..
मानो जैसे उसकी बात सुनकर
शरीर स्थिर पड़ गया हो..
वो बचपन की व्याख्या
वो रेत की टीलें बेफिक्र जीवन
जैसे सारी बातें एक मिथ्या हो..
अगर बच्चे भगवान का रूप होते हैं
तो इस कलियुग ने अपनी प्रबलता दिखा ही दी
जगत का पेट पालने वाला भी
आज अपना पेट पालने के लिए मजबूर है!!
“बचपन”- हसीं ठिठोली का समय
अब अश्को में धूल रहा है
जो देश का भविष्य है
वो सड़कों पे पल रहा है.
सासें तो चल रही है मगर
कही दब गए है सपने
शायद उन्ही जूठे बर्तन
ईंट-पत्थरों के नीचे !
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